दंतिल तथा गोरंभ की कथा
बहुत समय पूर्व वर्द्धमान नाम के एक नगर में दंतिल नाम का सेठ निवास करता था । वह अत्यंत धनी होने के साथ-साथ बहुत चतुर भी था | उसके कार्यों से प्रसन्न होकर नगर वासियों ने उसे नगर सेठ की उपाधी प्रदान की | लोग उसके बारे में बात करते हुए कहते – दंतिल समान चतुर न देखा, न सुना गया | इस तरह कुछ समय बीतने पर दंतिल की लड़की का विवाह हुआ | इस अवसर पर दंतिल ने सभी नगर वासियों एवं राजकीय अधिकारियों को बुलाया तथा उन्हें भोजन कराके तथा वस्त्र आदि देकर उनका सत्कार किया |
बहुत समय पूर्व वर्द्धमान नाम के एक नगर में दंतिल नाम का सेठ निवास करता था । वह अत्यंत धनी होने के साथ-साथ बहुत चतुर भी था | उसके कार्यों से प्रसन्न होकर नगर वासियों ने उसे नगर सेठ की उपाधी प्रदान की | लोग उसके बारे में बात करते हुए कहते – दंतिल समान चतुर न देखा, न सुना गया | इस तरह कुछ समय बीतने पर दंतिल की लड़की का विवाह हुआ | इस अवसर पर दंतिल ने सभी नगर वासियों एवं राजकीय अधिकारियों को बुलाया तथा उन्हें भोजन कराके तथा वस्त्र आदि देकर उनका सत्कार किया |
विवाह के बाद उसने अन्तःपुर के लोगों के साय राजा को भी अपने घर वुलाकर उनकी सेवा की | उस दिन राजा के घर में झाडू देने वाला गोरंभ नाम का राज-सेवक भी उसके घर आया था, पर उसे अनुचित स्थान पर बैठा हुआ देखकर दंतिल ने अपशब्द देकर बाहर निकाल दिया |
उस दिन गोरंभ आहें भरता रहा और रात में भी अपने अपमान के कारण न सो सका । 'कैसे मैं उस व्यापारी के ऊपर से राजा की कृपा-द्रष्टि दूर करूँ' यहीं विचार करता रहता था | फिर उसने सोचा, इस प्रकार वृथा शरीर सुखाने से क्या फायदा ! मैं दंतिल का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता । अथवा ठीक ही कहा है –
"जो नुकसान पहुँचाने में असमर्थ है, ऐसे बेशर्म मनुष्य के क्रोध करने से क्या लाभ ?
भुंजते समय फड़फड़ाता चना वया भांड फोड़ सकता है ?"
पर गोरंभ इस अपमान को नहीं भूल सका और सही समय की प्रतीक्षा करने लगा | एक समय सवेरे के पहर जव राजा अर्ध-निद्रा में पड़े थे, उसी समय खाट के पास सफाई करते हुए गोरंभ बोला, "अरे दंतिल की बदमाशी तो देखो कि वह महारानी का आलिंगन करता है |"
यह सुनते ही राजा उतावली के साथ उठ बैठा और उससे पूछा गोरंभ, दंतिल ने देवी का आलिंगन किया, क्या यह सच है ?
गोरंभ ने कहा, “ महाराज ! जुए कें प्रेम से रतजगा करने से मुझे ज़बरदस्त नींद आ गई थीं, इसलिए मैं नहीं जानता कि मैने क्या कहा?
इस प्रकार गोरम्भ ने दंतिल के विरुद्ध राजा के मन में शक का बीज बो दिया |
डाह के मारे राजा ने अपने से कहा, " गौरंभ मेरै घर में निसंकोच घूमता रहता है, उसी प्रकार दंतिल भी | तो शायद गोरंभ ने उसे देवी को आलिंगन करते हुए देखा हो और यह देखकर उसके मुंह से ऐसी वात निकली हो |
कहा है कि-
“मनुष्य दिन में जिसकी इच्छा करता हैं, देखता है या करता हैं वही
बात परिचय के कारण वह स्वप्न में बोलता है अथवा करता हैं |”
इस प्रकार वहुत विलाप करने के वाद राजा ने उस दिन से दंतिल पर कृपा दिखाना बन्द कर दिया । बहुत क्या, उसका महल में आना-जाना भी रुकवा दिया ।
दंतिल ने राजा की नाखुशी देखकर सोचा- मैंने इस राजा का अथवा इसकै किसी दूसरे संबंधी का स्वप्न में भी नुकसान नहीं किया हैं, फिर क्यों यह राजा विमुख है ?”
वह इस प्रकार विचार कर ही रहा था, तभी दंतिल को राज-द्वार पर रुकें हुए देखकर झाडू देने वाले गौरंभ ने हँसकर द्वारपालों से यह कहा, “रे द्वारपालों ! राजा का कृपापात्र यह दंतिल स्वयं निग्रह और अनुग्रह करने वाला हैं, इसलिए इसके रोकने से तुम्हें भी वैसे ही अपशब्द मिलेगें जैसे मुझे ।"
यह सुनकर दंतिल ने सोचा, अवश्य ही यह सब गौरंभ की हरकत हैं ।
इस प्रकार बहुत रो कलपकर अपमान और उद्वेग से प्रभाव-रहित वना दंतिल अपने घर वापस लौटा ।
संध्या के समय उसने गौरंभ को बुलाया तया कपडे का जोड़ा देकर उसका बड़ा सत्कार करते हुए कहा, "भद्र, उस दिन मैंने तुझे गुस्से से नहीं निकाला था | तुझे ब्राम्हणों के आगे अनुचित स्थान पर बैठे देखकर मैंने तेरा अपमान किया | मुझे क्षमा कर |”
गौरंभ ने भी स्वर्ग के राज्य के समान घोती-दुपटूटे के मिलने से अत्यन्त संतोष पाकर उससे कहा, "सेठजी ! आपके उस कृत्य की मैं माफी देता हूँ । आपने मेरा सत्कार किया हैं तो अव मेरी बुद्धि का प्रभाव तया (अपने ऊपर होने वाली) राजा की कृपा देखना ।" ऐसा कहकर संतोष के साथ वह बाहर निकला" ।
अगले दिन गौरंभ राजमहल में जाकर अर्ध-निद्रा में सोते हुए राजा के पास झाडू देता हुआ बोला, "अरे हमारे राजा की बेवकूफी तो देखो कि पाखाना जाते हुए वह ककडी खा रहा है ।"
यह सुनकर राजा ने विस्मित होकर उससे कहा हैं "क्यों रे गोरंभ, क्यों फ़जूल की बकवाद करता है ? क्या तूने मुझे ऐसा काम करते देखा था ?
गोरंभ ने जवाब दिया है "देव, जुए के प्रेम में रतजगा करने से झाडू देते समय मुझे जबरदस्ती नींद आ गई और उसके आ जाने पर मैं नहीं जानता कि मैंने क्या कहा । इसलिए निद्रा से बेबस मुझे स्वामी क्षमा करें ।"
यह सुनकर राजा ने सोचा, "अपने जीवन-भर मैंने पाखाना जाते समय कभी ककडी नहीं खाई है इसलिए फिर जैसी अंडबंड और असंभव बात मेरे बारे में इस मूढ़ ने कही है वैसी ही दंतिल कें बारे में भी कही होंगी -, यह निश्चित है | मैंने उस बेचारे दंतिल का जो अपमान किया, वह ठीक नहीं था | उसके जैसे मनुष्यों से ऐसा आचरण संभव नहीं है | उसके बिना राज-कार्य, नगर-कार्य, सबमें शिथिलता आ गई है |"
इस तरह बहुत विचार करने के बाद राजा ने दंतिल को बुलाकर और उसे अपने गहनों और वस्त्रों से सजाकर फिर उसे उसके पद पर नियुक्त कर दिया |
इस प्रकार पूरी कथा सुनाकर दमनक ने संजीवक से कहा - इसीलिए मैं कहता हूँ कि- “राजा के पास के उत्तम, मध्यम और अधम मनुष्य का जो शेखी के मारे सम्मान नहीं करता वह राजा का प्रिय पात्र होने पर भी दंतिल की तरह पद-च्युत हो जाता है|”
संजीवक ने कहा, "भद्र ! यह तो ठीक हैं, जैसा आपने कहा हैं मैं वैसा ही करूँगा |”
उसके ऐसा कहने पर दमनक उसे लेकर पिंगलक के पास आया और बोला – “महाराज, में संजीवक को ले आया हूँ । अब आपको जैसा ठीक लगे, कीजये |”
संजीवक ने सिर झुकाकर पिंगलक को प्रणाम किया | पिंगलक ने अपना दाहिना हाथ उसके मजबूत कंधे पर रखकर पूछा- “आप कुशल से तो हैं ? इस वीरान जंगल में आप कब आए ?"
संजीवक ने तब उसे सारी कहानी सुनाई| उसे सुनकर पिंगलक ने और भी आदर के साथ कहा, "मित्र, डरो मत । मै तुम्हारी रक्षा करूँगा । इसलिए तुम्हें हमेशा मैरे पास रहना चाहिए, क्योंकि अनेक विघ्नों से भरा हुआ और भयंकर पशुओं से घिरा यह वन वन्य-प्राणियों के भी रहने लायक नहीं है फिर घास खाने वालों की तो बात ही क्या है ! "
यह कहकर पिंगलक ने यमुना के किनारे उतरकर पानी पिया और फिर वन में घुस गया । तब से उसने अपने राज्य का काम-काज करटक व दमनक पर छोड़ दिया और संजीवक के साथ बातचीत में समय बिताने लगा । संजीवक बहुत बुद्धिमान और चतुर था । अनेक शास्त्रों के पढ़ने से ठोस बुद्धि वाले संजीवक ने थोड़े ही दिनों में मूर्ख पिंगलक को बुद्धिमान बना दिया और उसे जंगल-धर्म से अलग करके ग्राम्य-धर्म में लगा दिया |
रोज पिंगलक और संजीवक अलग में सलाह करते थे और दूसरे जीव दूर ही रहते थे | करटक और दमनक का भी वहां प्रवेश न था । सिह के शिकार न करने से भूखे जानवर उसे छोड़कर उसी तरह जाने लगे, जैसे कोई पेड़ सूख जाए और उस पर फल न लगें तो पंछी भी उसे छोड़ देते हैं|
इस तरह सिह के शिकार न करने से भूख से दुखी होकर और कोई पूछ-परख न रहने के कारण दमनक व करटक आपस में सलाह करने लगे । दमनक ने कहा, - “भाई करटक अब तो हमारी कोई पूछ नहीं रही । संजीवक के प्रेम के कारण पिंगलक ने अपने सब काम छोड़ दिए । सब राज-दरबारी और साथी भी चले गए । अब क्या किया जाए?"
करटक ने कहा, "अगर स्वामी तेरी बात न भी माने , तो भी तुझे उससे अपने दोष दूर करने के लिए कहना चाहिए | तू ही इस घास खानेवाले को महाराज के पास लाया था ।
दमनक ने कहा, है 'तुम ठीक कहते हो । वह दोष मेरा ही है, स्वामी का नहीं ।" कहा भी हैं…-
“भेड़ों को लड़ाई में सियार ने, आषाढ़भूति से देवशर्मा ने, और दूसरे के काम करने से दूती नाइन ने (इन तीनों ने दुख पाया) , इन तीनों कें इनमें अपने ही दोष थे |"
करटक ने कहा हैं " यह कैसे ? तब दमनक उसे आषाढ़भूति, सियार और दूती आदि की कथा सुनते हुए कहने लगा....
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