देवदत्त और आषाढ़भूति की कथा
किसी एकांत प्रदेश में एक मठ था । उस मठ में देवशर्मा नाम का एक सन्यासी रहता था | अनेक साहूकारों द्वारा दिये भेंट में दिए गए महीन वस्त्रों के बेचने से उसके पास काफी- धन इकट्ठा हो गया | धन को सुरक्षित रखने के लिए वह किसी पर भी विश्वास नहीं करता था | रात और दिन वह धन की थैली अपनी बगल में ही रखता था |
किसी एकांत प्रदेश में एक मठ था । उस मठ में देवशर्मा नाम का एक सन्यासी रहता था | अनेक साहूकारों द्वारा दिये भेंट में दिए गए महीन वस्त्रों के बेचने से उसके पास काफी- धन इकट्ठा हो गया | धन को सुरक्षित रखने के लिए वह किसी पर भी विश्वास नहीं करता था | रात और दिन वह धन की थैली अपनी बगल में ही रखता था |
एक बार दूसरे का धन चुराने वाला आषाढ़भूति नाम का एक धूर्त उसकी बगल में पडी हुई सिक्कों की थैली देखकर विचारने लगा कि "मैं इस सन्यासी के धन को किस तरह चुराऊँ । इस मठ की दीवारें मज़बूत पत्थर की बनी होने से उनमे सेंध भी नहीं लग सकती । दरवाजा खूब-ऊँचा होने से उसे फांदकर भीतर घुसना भी मुश्किल हैं | इसलिए कपट की बातों से उसका विश्वास प्राप्त करके उसका शिष्य हो जाऊँ जिससे भूलकर कदाचित वह मेरा विश्वास करने लगे |"
इस प्रकार निश्चय कर उसने देव-शर्मा के पास जाकर 'ओम नम: शिवाय जयकारा लगते हुए उससे विनय-पूर्वक कहा - "भगवन, यह संसार निरर्थक है | फिर मैं क्या करने से संसार-सागर से पार उतर सकता हुँ ? “
यह सुनकर देवशर्मा ने आदर पूर्वक कहा, "वत्स, तू धन्य है कि युवावस्था में ही तुझे वैराग्य हुआ है । कहा भी है कि-
“यदि शूद्र अथवा दूसरा कोई, अथवा चांडाल भी शिव-मंत्र से दीक्षित होकर जटा धारण करे तथा शरीर में भस्म लगाए तो वह शिव-रूप होता है| छ: अक्षरों के मंत्र से जो मनुष्य स्वयं शिव-लिग के ऊपर एक फूल भी चढाता है उसका फिर से जन्म नहीं होता |”
यह सुनकर आपाढ़भूति ने संन्यासी के पाँव पकड़कर विनयपूर्वक उससे कहा, " भगवन ! मुझे दीक्षा देकर मेरे ऊपर कृपा कीजिए |”
देवशर्मा ने कहा," मैं तेरे ऊपर अनुग्रह करूँगा, परन्तु रात में तुम मठ के अन्दर प्रवेश नहीं करना , क्योंकि सन्यासियों के लिए अकेलापन प्रशंसनीय है, यही तेरे और मेरे दोनों ही के लिए श्रेयस्कर है| अतः दीक्षा प्राप्ति के पश्चात तुम मठ के बाहर कुटिया में निवास करना |
इस प्रकार देवशर्मा ने अषाढ़ भूति से मठ के बाहर निवास करने की प्रतिज्ञा कराने के पश्चात शास्त्र विधि से उसको दीक्षा देकर अपना शिष्य बना लिया | अषाढ़ भूति ने भी हाथ पैर दबा कर अपनी सेवा द्वारा देवशर्मा को संतुष्ट कर लिया | इतना होने पर भी देव शर्मा धन की पोटली को कभी भी अपने से अलग नहीं करता |
इस प्रकार कुछ दिनों के व्यतीत हो जाने पर अषाढ़ भूति ने निराश होकर एक बार सोचा- “ यह कभी भी मेरा विश्वास नहीं करता है | तो क्या धन प्राप्ति के लिए मैं इसकी हत्या कर दूं |”
अभी वह इस बात को सोच ही रहा था की पास के गांव से देवशर्मा का एक शिष्य उसे निमंत्रण देने आया एवं कहने लगा – “महाराज कृपया मेरे पुत्र के यज्ञोपवीत संस्कार के लिए आप मेरे यहाँ पधारें |"
देवशर्मा ने प्रसन्नता पूर्वक उसके निमंत्रण को स्वीकार किया | अगले दिन देवशर्मा अषाढ़ भूति के साथ अपने शिष्य के गाँव की और चल दिया | मार्ग में एक नदी के किनारे रूककर देवशर्मा ने धन की पोटली को कम्बल में छिपा दिया एवं उसे अषाढ़ भूति को सौंपते हुए बोला - अषाढ़ भूति मैं दैनिक कार्यों से निवृत्त हो कर आता हूँ तब तक तुम मेरे सामान की सुरक्षा करना|
इस प्रकार अपने धन को देवशर्मा अषाढ़ भूति के संरक्षण में छोड़ कर चल दिया | अषाढ़ भूति इसी अवसर की प्रतीक्षा में था| उसने मौका पाकर धन की पोटली को लेकर चम्पत हो गया|
इस प्रकार कथा सुनाकर दमनक ने करटक से कहा - " भ्राता, इस कथा से हमें यह शिक्षा मिलती है की कभी भी किसी धूर्त व्यक्ति की चिकनी चुपड़ी बातों में नहीं आना चाहिए |"
करटक ने पूछा -"भ्राता, और उस सन्यासी देवदत्त का क्या हुआ ?"
दमनक आगे कथा सुनाने लगा...
भेड़ और सियार की कथा (Fighting Goats And Jackal)
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इस प्रकार निश्चय कर उसने देव-शर्मा के पास जाकर 'ओम नम: शिवाय जयकारा लगते हुए उससे विनय-पूर्वक कहा - "भगवन, यह संसार निरर्थक है | फिर मैं क्या करने से संसार-सागर से पार उतर सकता हुँ ? “
यह सुनकर देवशर्मा ने आदर पूर्वक कहा, "वत्स, तू धन्य है कि युवावस्था में ही तुझे वैराग्य हुआ है । कहा भी है कि-
“यदि शूद्र अथवा दूसरा कोई, अथवा चांडाल भी शिव-मंत्र से दीक्षित होकर जटा धारण करे तथा शरीर में भस्म लगाए तो वह शिव-रूप होता है| छ: अक्षरों के मंत्र से जो मनुष्य स्वयं शिव-लिग के ऊपर एक फूल भी चढाता है उसका फिर से जन्म नहीं होता |”
यह सुनकर आपाढ़भूति ने संन्यासी के पाँव पकड़कर विनयपूर्वक उससे कहा, " भगवन ! मुझे दीक्षा देकर मेरे ऊपर कृपा कीजिए |”
देवशर्मा ने कहा," मैं तेरे ऊपर अनुग्रह करूँगा, परन्तु रात में तुम मठ के अन्दर प्रवेश नहीं करना , क्योंकि सन्यासियों के लिए अकेलापन प्रशंसनीय है, यही तेरे और मेरे दोनों ही के लिए श्रेयस्कर है| अतः दीक्षा प्राप्ति के पश्चात तुम मठ के बाहर कुटिया में निवास करना |
इस प्रकार देवशर्मा ने अषाढ़ भूति से मठ के बाहर निवास करने की प्रतिज्ञा कराने के पश्चात शास्त्र विधि से उसको दीक्षा देकर अपना शिष्य बना लिया | अषाढ़ भूति ने भी हाथ पैर दबा कर अपनी सेवा द्वारा देवशर्मा को संतुष्ट कर लिया | इतना होने पर भी देव शर्मा धन की पोटली को कभी भी अपने से अलग नहीं करता |
इस प्रकार कुछ दिनों के व्यतीत हो जाने पर अषाढ़ भूति ने निराश होकर एक बार सोचा- “ यह कभी भी मेरा विश्वास नहीं करता है | तो क्या धन प्राप्ति के लिए मैं इसकी हत्या कर दूं |”
अभी वह इस बात को सोच ही रहा था की पास के गांव से देवशर्मा का एक शिष्य उसे निमंत्रण देने आया एवं कहने लगा – “महाराज कृपया मेरे पुत्र के यज्ञोपवीत संस्कार के लिए आप मेरे यहाँ पधारें |"
देवशर्मा ने प्रसन्नता पूर्वक उसके निमंत्रण को स्वीकार किया | अगले दिन देवशर्मा अषाढ़ भूति के साथ अपने शिष्य के गाँव की और चल दिया | मार्ग में एक नदी के किनारे रूककर देवशर्मा ने धन की पोटली को कम्बल में छिपा दिया एवं उसे अषाढ़ भूति को सौंपते हुए बोला - अषाढ़ भूति मैं दैनिक कार्यों से निवृत्त हो कर आता हूँ तब तक तुम मेरे सामान की सुरक्षा करना|
इस प्रकार अपने धन को देवशर्मा अषाढ़ भूति के संरक्षण में छोड़ कर चल दिया | अषाढ़ भूति इसी अवसर की प्रतीक्षा में था| उसने मौका पाकर धन की पोटली को लेकर चम्पत हो गया|
इस प्रकार कथा सुनाकर दमनक ने करटक से कहा - " भ्राता, इस कथा से हमें यह शिक्षा मिलती है की कभी भी किसी धूर्त व्यक्ति की चिकनी चुपड़ी बातों में नहीं आना चाहिए |"
करटक ने पूछा -"भ्राता, और उस सन्यासी देवदत्त का क्या हुआ ?"
दमनक आगे कथा सुनाने लगा...
भेड़ और सियार की कथा (Fighting Goats And Jackal)
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