विष्णु का रूप धारण करने वाले बुनकर और राज-कन्या की कथा
किसी नगर में एक बुनकर और रथकार मित्र होकर रहते थे ! वचपन से ही एक साथ रहने से उन दोनों में इतना स्नेह हो गया था कि वे सव जगहों में एक साथ विहार करते हुए समय बिताते थे । एक समय उस नगर के किसी मंदिर में यात्रोत्सव हुआ । वहाँ भिन्न-भिन्न देशों से आए हुए लोगों से भरे स्थान में घूमते हुए दोनों मित्रों ने हथिनी पर सवार अत्यंत रूपवान किसी राज- कन्या को देखा जो देवता-दर्शन को आई हुई थी ।
किसी नगर में एक बुनकर और रथकार मित्र होकर रहते थे ! वचपन से ही एक साथ रहने से उन दोनों में इतना स्नेह हो गया था कि वे सव जगहों में एक साथ विहार करते हुए समय बिताते थे । एक समय उस नगर के किसी मंदिर में यात्रोत्सव हुआ । वहाँ भिन्न-भिन्न देशों से आए हुए लोगों से भरे स्थान में घूमते हुए दोनों मित्रों ने हथिनी पर सवार अत्यंत रूपवान किसी राज- कन्या को देखा जो देवता-दर्शन को आई हुई थी ।
उसके अत्यंत सुंदर रूप को देखकर काम-वाणों की मार से घायल होकर वह वुनकर, एकाएक जमीन पर गिर पड़ा ।
उसे इस हालत में देखकर रथकार विश्वासी मनुष्यों द्वारा उसे उठाकर अपने घर ले आया। वहाँ चिकित्सकों के बताए अनेक तरह के ठंडे उपचारों तथा ओझा के मंत्रों से इलाज करने पर बहुत देर पश्चात मुश्किल से उसे होश आया |
इसके बाद रथकार ने उससे पूछा - “मित्र ! तुम एकाएक किसलिए वेहोश हो गए ? तुम - अपने मन की वात मुझसे कहो ।”
बुनकर ने कहा - मित्र ! उस उत्सव में हाथी पर चढ़ी जिस राज-कन्या को मैंने देखा, उसके देखने के वाद ही काम ने मेरी यह अवस्था कर डाली | में इस पीड़ा को नहीं सह सकंता |
बुनकर की सारी बातें सुनकर रथकार ने मुस्कुराते हुए उससे कहा – मित्र ! यदि यही बात हैं तो अपना मतलव सिद्ध हो गया समझ । आज ही तू राज-कन्या के साथ विहार कर ।”
बुनकर ने कहा , “मित्र !' रक्षकों से घिरे हुए राजकुमारी के महल में, जहाँ हवा को छोड़कर और किसी का प्रवेश नहीं है, वहाँ उसके साथ मेरी भेंट किस प्रकार हो सकती है ? कहीं तू झूठ बोल कर मेरा मजाक तो नहीं उठा रहा है ? ”
रथकार ने कहा - मित्र ! मेरी बुद्धि का वल देख।”
यह कहकर उसने उसी क्षण पुराने अर्जुन के पेड़ की लकड़ी से कील-काँटे से लैस उड़ने वाला गरुड़ बनाया तथा शंख-चक्र और गदा-पद्म से युक्त बाहु युगल तथा किरीट और कौस्तुभ मणि भी तैयार की ।
बाद में उस वुनकर को उसने गरुड़ पर विठाया और उसे विष्णु के लक्षणों से सजाया, तथा उसे कल-पुरजा चलाने की वात वताकर कहा, “मित्र ! इस प्रकार विप्णु का रूप घारण करके राजकुमारी के सात मंजिला महल की सबसे ऊपरी मंजिल में, जहाँ वह अकेली ही रहती है, तू आधी रात में जाना तथा भोली-भाली तुझे विष्णु मानती हुई उस कन्या को तू अपनी झूठी बातों से प्रसन्न करके वात्स्यायन की कही हुई विधि के अनुसार उसके साथ रति करना ।”
विप्णु का रुप घारण किए हुए बुनकर ने यह सुनकर और वहाँ पहुँचकर एकांत में राज-कन्या से कहा, - “राज-पुत्रि ! तू सोती हैं अथवा जागती हैं ? में तेरे प्रेम में फेंसकर लक्ष्मी को छोड़कर समुद्र से यहाँ चला आ रहा हूँ, इसलिए तू मेरे साथ समागम कर ।”
वह रांज-कन्या भी गरुड़ पर सवार चतुर्मुज, आयुधों तथा कौस्तुभ मणि से युक्त उसे देखकर आश्चर्य करती हुई खाट से उठ बैठी और कहा, “भगवन् ! में मानवी अपवित्र कौड़ी के समान हूं और भगवान् तैलोक्य पावन और वंदनीय हैं, फिर कैसे यह जोड़ पटेगा ।”
बुनकर ने कहा, “तूने सच ही वहा सुभगे ! तूने सच ही कहा; कितु जिस राधा नाम की मेरी स्त्री का पहले गोप-कुल में जन्म हुआ था, वही तुझमें आज पैदा हुई है। इसलिए में आया हूं ।”
ऐसा कहने पर उसने जवाब दिया, “भगवन् ! यदि यही बात है
उसे इस हालत में देखकर रथकार विश्वासी मनुष्यों द्वारा उसे उठाकर अपने घर ले आया। वहाँ चिकित्सकों के बताए अनेक तरह के ठंडे उपचारों तथा ओझा के मंत्रों से इलाज करने पर बहुत देर पश्चात मुश्किल से उसे होश आया |
इसके बाद रथकार ने उससे पूछा - “मित्र ! तुम एकाएक किसलिए वेहोश हो गए ? तुम - अपने मन की वात मुझसे कहो ।”
बुनकर ने कहा - मित्र ! उस उत्सव में हाथी पर चढ़ी जिस राज-कन्या को मैंने देखा, उसके देखने के वाद ही काम ने मेरी यह अवस्था कर डाली | में इस पीड़ा को नहीं सह सकंता |
बुनकर की सारी बातें सुनकर रथकार ने मुस्कुराते हुए उससे कहा – मित्र ! यदि यही बात हैं तो अपना मतलव सिद्ध हो गया समझ । आज ही तू राज-कन्या के साथ विहार कर ।”
बुनकर ने कहा , “मित्र !' रक्षकों से घिरे हुए राजकुमारी के महल में, जहाँ हवा को छोड़कर और किसी का प्रवेश नहीं है, वहाँ उसके साथ मेरी भेंट किस प्रकार हो सकती है ? कहीं तू झूठ बोल कर मेरा मजाक तो नहीं उठा रहा है ? ”
रथकार ने कहा - मित्र ! मेरी बुद्धि का वल देख।”
यह कहकर उसने उसी क्षण पुराने अर्जुन के पेड़ की लकड़ी से कील-काँटे से लैस उड़ने वाला गरुड़ बनाया तथा शंख-चक्र और गदा-पद्म से युक्त बाहु युगल तथा किरीट और कौस्तुभ मणि भी तैयार की ।
बाद में उस वुनकर को उसने गरुड़ पर विठाया और उसे विष्णु के लक्षणों से सजाया, तथा उसे कल-पुरजा चलाने की वात वताकर कहा, “मित्र ! इस प्रकार विप्णु का रूप घारण करके राजकुमारी के सात मंजिला महल की सबसे ऊपरी मंजिल में, जहाँ वह अकेली ही रहती है, तू आधी रात में जाना तथा भोली-भाली तुझे विष्णु मानती हुई उस कन्या को तू अपनी झूठी बातों से प्रसन्न करके वात्स्यायन की कही हुई विधि के अनुसार उसके साथ रति करना ।”
विप्णु का रुप घारण किए हुए बुनकर ने यह सुनकर और वहाँ पहुँचकर एकांत में राज-कन्या से कहा, - “राज-पुत्रि ! तू सोती हैं अथवा जागती हैं ? में तेरे प्रेम में फेंसकर लक्ष्मी को छोड़कर समुद्र से यहाँ चला आ रहा हूँ, इसलिए तू मेरे साथ समागम कर ।”
वह रांज-कन्या भी गरुड़ पर सवार चतुर्मुज, आयुधों तथा कौस्तुभ मणि से युक्त उसे देखकर आश्चर्य करती हुई खाट से उठ बैठी और कहा, “भगवन् ! में मानवी अपवित्र कौड़ी के समान हूं और भगवान् तैलोक्य पावन और वंदनीय हैं, फिर कैसे यह जोड़ पटेगा ।”
बुनकर ने कहा, “तूने सच ही वहा सुभगे ! तूने सच ही कहा; कितु जिस राधा नाम की मेरी स्त्री का पहले गोप-कुल में जन्म हुआ था, वही तुझमें आज पैदा हुई है। इसलिए में आया हूं ।”
ऐसा कहने पर उसने जवाब दिया, “भगवन् ! यदि यही बात है