नकटी दूतिका की कथा
इस प्रकार बहुत देर तक विलाप करने के पश्चात देव शर्मा उसके पदचिन्हों को ढूँढता हुआ धीरे धीरे चलने लगा | चलते चलते सूर्यास्त के समय वह एक गांव के समीप पहुंचा | उस गांव से कौलिक नाम का जुलाहा (बुनकर) अपनी स्त्री के साथ शराब पीने के लिए समीप के नगर मेँ जा रहा था |
इस प्रकार बहुत देर तक विलाप करने के पश्चात देव शर्मा उसके पदचिन्हों को ढूँढता हुआ धीरे धीरे चलने लगा | चलते चलते सूर्यास्त के समय वह एक गांव के समीप पहुंचा | उस गांव से कौलिक नाम का जुलाहा (बुनकर) अपनी स्त्री के साथ शराब पीने के लिए समीप के नगर मेँ जा रहा था |
उसको देखकर देव शर्मा ने कहा - “भद्र ! हम इस गांव मेँ नए हैं, तथा इस गांव के किसी भी व्यक्ति को नहीँ जानते हैँ | सूर्यास्त का समय हो रहा है, आज रात हम तुंहारे यहाँ रुकना चाहते हैँ, कृपया हमेँ अपने अतिथि के रुप मेँ स्वीकार करो |"
देव शर्मा के आग्रह को सुनकर कौलिक ने अपनी स्त्री से कहा- “प्रिए ! तुम अतिथि को लेकर घर लौट जाओ और पद प्रक्षालन, भोजन तथा शयन आदि का प्रबंध करके इनकी सेवा मेँ वही रहना | मैँ तुम्हारे लिए लौटते समय पर्याप्त मद्य लेता आऊँगा|”
यह कहकर वह चला गया | उसकी व्यभिचारिणी स्त्री अतिथि को लेकर प्रसन्न मन से अपने उप पति देवदत्त का स्मरण करती हुई वहाँ से घर के लिए लौट पड़ी | जुलाहे की स्त्री ने घर पहुँचकर एक बिना बिस्तर की टूटी हुई चारपाई देखकर देव शर्मा से कहा- “भगवन! दूसरे ग्राम से आई हुई अपनी सहेली से मिलकर मैँ अभी आ रही हूँ तब तक आप मेरे घर मेँ सावधानी पूर्वक विश्राम करेँ|”
यह कहकर वह श्रंगार आदि करने के बाद जब अपने प्रेमी देवदत्त से मिलने के लिए चलने लगी तभी उसका पति सामने से नशे मेँ झूमता हुआ शराब का बर्तन लिए हुए वहाँ आ पहुंचा |
उसको देखते ही वह शीघ्रतापूर्वक लौटकर अपने घर मेँ वापस आ गई और अपने आभूषण आदि को निकाल कर पहले की तरह बैठ गई | परन्तु कौलिक ने आभूषण से सुसज्जित और शीघ्रता पूर्वक लौटी हुई अपनी स्त्री को देख लिया था | वह पूर्व से ही उसकी लोक निंदा को सुनने के कारण छुब्ध रहा करता था, पर अपने मनोगत भावों को सदा छुपाए रहता था | इस समय अपनी स्त्री के आचरण को देखकर उसे पूर्ण विश्वास हो चुका था | घर मेँ घुसते ही क्रोधित होकर उसने पूछा – पापिणी ! तू इस समय कहाँ गई थी?
उसकी स्त्री ने कहा–“तुम्हारे पास से आने के बाद मैँ कहीँ नहीँ गई, तुमने मदिरापान किया है इसलिए शायद तुम्हे कोई वहम हो गया है|”
स्त्री के मुख से विपरीत बातोँ को सुनने और देखने के बाद कौलिकने कहा –“मैँ काफी समय से तुंहारे विषय मेँ लोक आपवाद सुन रहा हूँ |आज अपनी आंखोँ से देखने के पश्चात मुझे पूर्ण विश्वास हो चुका है | पता है आज मैँ तुंहारा उचित उपचार करुंगा |”
यह कहकर उसने डंडे से पीटकर अपनी पत्नी को जर्जर बना दिया और खंबे से बांध दिया | नशे मेँ धुत होने के कारण वह स्वयँ भी सो गया |
कुछ समय पश्चात कौलिक की पत्नी की एक सहेली नापिती (नाई की पत्नी) ने कौलिक के घर में प्रवेश किया तथा कौलिक को सोते हुए देख कर उसकी स्त्री के पास जाकर कहा - सखी ! देवदत्त तुंहारी वहाँ प्रतीक्षा कर रहा है शीघ्र जाओ |
कौलिक की स्त्री ने कहा मेरी अवस्था को भी तो देखो, मैँ कैसे जा सकती हूँ तुम जाकर उससे कह देना कि आज रात्रि मैँ उससे मिलने नहीँ आ सकूंगी |
उसकी बात सुनकर नापिती ने कहा- "सखी ऐसा न कहो|"
कौलिक की स्त्री ने कहा –सखी इस तरह बंधन मेँ आबद्ध रह कर मैँ कैसे वहाँ जा सकती हूँ ? यह पापी मेरा पति भी यहीं पड़ा है |
नापिती ने कहा –“सखी ! शराब के नशे मेँ बेहोश यह सूर्योदय के बाद ही जाग सकेगा अतः मैँ तुंहेँ छोड़ देती हूँ | अपने स्थान मेँ तुम मुझे बांधकर अतिशीघ्र देवदत्त से मिला आओ |"
कौलिक की स्त्री ने कहा-“अच्छी बात है जो तुम कहती हो वही करुंगी |"
इसके बाद नापिती ने अपनी सखी के बंधन को छोड़ दिया और उसके स्थान मेँ स्वयम को बांधकर उसको देवदत्त के पास संकेत स्थल पर भेज दिया | कुछ देर के बाद कौलिक भी उठ कर बैठ गया नशा एवं क्रोध के कुछ कम हो जाने पर उसने कहा - "अरे कुल्टा, यदि तुम आज से फिर कभी बाहर निकलने का नाम न लो और पर पुरुष से मिलना छोड़ दो तो मैँ तुम्हे छोड़ सकता हूँ | "
नापिती नाइन ने अपनी आवाज पहचाने जाने के डर से कुछ नहीं कहा | वह बार-बार अपनी बातोँ को दोहराता रहा | पर जब नापिती कुछ नहीँ बोली तो उसकी खामोशी से अत्यंत क्रुद्ध होकर कौलिक ने किसी तेज शस्त्र से उसकी नाक को काट दिया और कहा –“जाओ, इसी तरह पड़ी रहो मैँ फिर तुंहेँ परेशान करने की कोशिश नहीँ करुंगा|”
यह कहकर वह सो गया |
धन-नाश और भूख से पीड़ित तथा जागते हुए देवशर्मा ने यह सब तिरिया-चरित्र देखा | कुछ समय पश्चात कौलिक की स्त्री अपने प्रेमी देव-दत्त से मिलकर वापस आयी | उसने नाइन से कहा –“ओ ओ, तू मजे में तो है ? मेरे जाने के बाद यह पापी जागा तो नहीं था ? “|
नाइन ने जवाब दिया –“सिवाय नाक के बाकी सब शरीर की कुशल है । जल्दी से मेरे बंधन खोल जिससे उसके -देखने के पहले ही मैं अपने घर पहुँच जाऊँ ।"
कौलिक की स्त्री ने नकटी नाइन के बंधन खोल कर स्वयं को खम्बे से बाँध लिया | यह सब होने के बाद कौलिक ने पुन: उठकर कहा, "छिनाल, अब भी क्यों नहीं बोलती ! क्या मैं फिर इससे भी कठोर कान काटने की सजा तुझे दूं ? "
गुस्से और झिडकी के साथ उसकी स्त्री ने जवाब दिया, "अरे महामूर्ख, तुझे धिक्कार है । मुझ जैसी महासती के अंग काटने वाला और उसे ताने मारने वाला कौन समर्थ है ? इसलिए हे सब लोकपालों सुनो -
“सूर्य, चंन्द्र, अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी, जल, हृदय, यम, रात्रि, दिवस, दोनों संध्याएं (सवेरा और संध्या) तथा धर्म, ये सब मनुष्य का आचरण जानते हैं | इसलिए अगर मेरा सतीत्व है, और मन से भी मैंने दूसरे आदमी की इच्छा नहीं की है तो-देवगण पुन: मेरी नाक को पहले की तरह सुन्दर और पूरा बना दें | पर यदि मेरे चित्त में पर-पुरुष का झूठा खयाल भी है तो वे मुझे जला डालें ।"
यह कहकर वह फिर उससे बोली,- “ओ पापी,देख मेरे सतीत्व के प्रभाव से मेरी नाक पहले-जैसी ही होगई है ।"
इस पर बुनकर ने अंगीठी की रोशनी में पास जाकर उसकी ज्यों-की-त्यों नाक और जमीन पर गहरा खून बहते देखा | बड़े अचंभे में पड़कर उसने अपनी स्त्री के बंधन खोलकर उसे खाट पर लिटाकर खुशामद की बातों से उसकी मिन्नत करने लगा |
देवशर्मा भी विस्मित मन से यह सब हाल देखता रहा, और मन ही मन बुनकर की स्त्री कि चतुराई पर आश्चर्य प्रकट करते हुए उसने नकटी दूतिका का पीछा करने का निश्चय किया |
उधर नकटी दूतिका (नाई की स्त्री) ने भी अपने घर जाकर सोचा, -"अब क्या करना चाहिए, और इस बड़े भेद को किस तरह ढकना चाहिए ।"
वह इसी तरह सोच रहीं थी कि उसका पति, जो काम के लिए रात में राजमहल गया था, सवेरे ही अपने घर लौटकर नागरिकों की हजामत बनाने के लिए जाने की उतावली से देहली पर ही खड़ा होकर उससे कहने लगा,- “भद्रे ! जल्दी से छुरे की पेटी ला, जिससे मैं हजामत बनाने जाऊँ |”
उधर नकटी नाइन ने, जो अपना काम बनाने की ताक में घर में हीं बैठी थी, छुरे की पेटी में से एक छुरा निकालकर नाई की तरफ़ फेका | नाई ने भी उत्सुकता से केवल एक छुरा देख कर गुस्से से उसकी ओर वह छुरा वापस फेंका और चीखा – “यह क्या है ? पूरी पेटी ले के आ |”
इसके बाद वह दुष्टा हाथ उठाए हुए रोती चिल्लाती घर से बाहर निकल आई -"अरे देखो, इस पापी ने मुझ जैसी सतवंती की नाक काट डाली । इससे मेरी रक्षा करो , रक्षा करो ।"
उसकी चीख सुनकर राजा के सैनिक वहाँ आ गए | उन्होंने उस नाई को डंडों से पीटा और मजबूती से बाँधकर उसकी नकटी स्त्री के साथ धर्माधिकरण-स्थान (अदालत) में ले- जाकर न्यायधीशों से कहा- "हे सभासद, सुनिए, इस नाई ने बिना-कसूर अपनी स्त्री की नाक काट दी है | इस बारे में जो ठीक हो वह कीजिए |"
ऐसा कहने पर न्यायधीशों ने कहा - "अरे नाई, किसलिए तूने अपनी स्त्री का अंग-भंग कर दिया ? क्या वह पर-पुरुष को चाहती थी अथवा वह किसी को जानती थी अथवा चोरी की थी, उसका अपराध कहो ।"
नाई मार खाने के भय से बोल न सका । उसे चुप रहते देखकर न्यायाघीशों ने पुन: कहा- "इन सैनिकों की बात ठीक लगती है, यह पापी हैं जिसने इस बेचारी स्त्री का अपमान किया है । कहा भी हैं -…
“पाप-कर्म के बाद मनुष्य अपने कर्म से ही डर जाता है, उसके मुख का रंग और आवाज बदल जाती है, द्रष्टि शंकित हो जाती है और तैज उड़ जाता है|”
इस नाई में बदमाशी के लक्षण दिखते हैं | स्त्री का अंग-भंग करने से यह मृत्यु-दंड का भागी है । इसलिए इसे सूली पर चढा दो |
इधर देव शर्मा जो दूर से ही यह सब घटना क्रम देख रहा था तुरंत न्यायधीशों के सम्मुख उपस्थित हो कर बोला - "' न्यायधीशों ! यह गरीब नाई अन्याय से मारा जा रहा है । यह तो सदाचारी है | तब न्यायधीशों ने कहा, "भगवन यह किस तरह ? "
इसकें वाद देवशर्मा ने विस्तार पूर्वक सारी कहानी सुनाई | उसे सुनकर ताज्जुब में आकर उन्होंने नाई को छोड़ दिया और नकटी नाइन की और देखते हुए बोले- ‘इसकी नाक कटना उसके कर्म का ही फल है | इसलिए राज-दंडस्वरूप इस स्त्री के कान काट लेंने चाहिएं ।"
ऐसा हो जाने पर धन-नाश" के दुख से रहित होकर देवशर्मा भी पुन: अपने मठ चले आए |
करटक ने कहा, "ऐसी हालत में हम दोनों को क्या करना चाहिए ?"
दमनक ने कहा , "तुम चिंता ना करो तात मैं अपनी बुद्धि का प्रयोग करके कोई ना कोई चाल चलूंगा और उन दोनों की मित्रता को तोड डालूंगा ।"
करटक ने कहा, "भद्र ! किंतु यदि पिंगलक को तेरी चाल का पता लग गया तो संजीववक के स्थान पर तेरी मौत होगी ।"
उसने कहा, "तात ! ऐसा मत कह; परिस्थितियां प्रतिकूल होने पर भी हमें कोशिश नहीं छोड़नी चाहिए | मैं अपनी तीक्ष्ण बुद्धि का प्रयोग करके ऐसी छिपी चाल चलूंगा कि वे दोनों न जानने पाएं, उसी प्रकार जिस प्रकार वुनकर ने अपनी युक्ति का प्रयोग करके विप्णु का रूप धारण करके छल पूर्वक राजकन्या के साथ रमण किया ।”
करटठक ने कहा , 'सो कैसे ?” उसने कहा--
विष्णु का रूप धारण करने वाले वुनकर और राज-कन्या की कथा
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देव शर्मा के आग्रह को सुनकर कौलिक ने अपनी स्त्री से कहा- “प्रिए ! तुम अतिथि को लेकर घर लौट जाओ और पद प्रक्षालन, भोजन तथा शयन आदि का प्रबंध करके इनकी सेवा मेँ वही रहना | मैँ तुम्हारे लिए लौटते समय पर्याप्त मद्य लेता आऊँगा|”
यह कहकर वह चला गया | उसकी व्यभिचारिणी स्त्री अतिथि को लेकर प्रसन्न मन से अपने उप पति देवदत्त का स्मरण करती हुई वहाँ से घर के लिए लौट पड़ी | जुलाहे की स्त्री ने घर पहुँचकर एक बिना बिस्तर की टूटी हुई चारपाई देखकर देव शर्मा से कहा- “भगवन! दूसरे ग्राम से आई हुई अपनी सहेली से मिलकर मैँ अभी आ रही हूँ तब तक आप मेरे घर मेँ सावधानी पूर्वक विश्राम करेँ|”
यह कहकर वह श्रंगार आदि करने के बाद जब अपने प्रेमी देवदत्त से मिलने के लिए चलने लगी तभी उसका पति सामने से नशे मेँ झूमता हुआ शराब का बर्तन लिए हुए वहाँ आ पहुंचा |
उसको देखते ही वह शीघ्रतापूर्वक लौटकर अपने घर मेँ वापस आ गई और अपने आभूषण आदि को निकाल कर पहले की तरह बैठ गई | परन्तु कौलिक ने आभूषण से सुसज्जित और शीघ्रता पूर्वक लौटी हुई अपनी स्त्री को देख लिया था | वह पूर्व से ही उसकी लोक निंदा को सुनने के कारण छुब्ध रहा करता था, पर अपने मनोगत भावों को सदा छुपाए रहता था | इस समय अपनी स्त्री के आचरण को देखकर उसे पूर्ण विश्वास हो चुका था | घर मेँ घुसते ही क्रोधित होकर उसने पूछा – पापिणी ! तू इस समय कहाँ गई थी?
उसकी स्त्री ने कहा–“तुम्हारे पास से आने के बाद मैँ कहीँ नहीँ गई, तुमने मदिरापान किया है इसलिए शायद तुम्हे कोई वहम हो गया है|”
स्त्री के मुख से विपरीत बातोँ को सुनने और देखने के बाद कौलिकने कहा –“मैँ काफी समय से तुंहारे विषय मेँ लोक आपवाद सुन रहा हूँ |आज अपनी आंखोँ से देखने के पश्चात मुझे पूर्ण विश्वास हो चुका है | पता है आज मैँ तुंहारा उचित उपचार करुंगा |”
यह कहकर उसने डंडे से पीटकर अपनी पत्नी को जर्जर बना दिया और खंबे से बांध दिया | नशे मेँ धुत होने के कारण वह स्वयँ भी सो गया |
कुछ समय पश्चात कौलिक की पत्नी की एक सहेली नापिती (नाई की पत्नी) ने कौलिक के घर में प्रवेश किया तथा कौलिक को सोते हुए देख कर उसकी स्त्री के पास जाकर कहा - सखी ! देवदत्त तुंहारी वहाँ प्रतीक्षा कर रहा है शीघ्र जाओ |
कौलिक की स्त्री ने कहा मेरी अवस्था को भी तो देखो, मैँ कैसे जा सकती हूँ तुम जाकर उससे कह देना कि आज रात्रि मैँ उससे मिलने नहीँ आ सकूंगी |
उसकी बात सुनकर नापिती ने कहा- "सखी ऐसा न कहो|"
कौलिक की स्त्री ने कहा –सखी इस तरह बंधन मेँ आबद्ध रह कर मैँ कैसे वहाँ जा सकती हूँ ? यह पापी मेरा पति भी यहीं पड़ा है |
नापिती ने कहा –“सखी ! शराब के नशे मेँ बेहोश यह सूर्योदय के बाद ही जाग सकेगा अतः मैँ तुंहेँ छोड़ देती हूँ | अपने स्थान मेँ तुम मुझे बांधकर अतिशीघ्र देवदत्त से मिला आओ |"
कौलिक की स्त्री ने कहा-“अच्छी बात है जो तुम कहती हो वही करुंगी |"
इसके बाद नापिती ने अपनी सखी के बंधन को छोड़ दिया और उसके स्थान मेँ स्वयम को बांधकर उसको देवदत्त के पास संकेत स्थल पर भेज दिया | कुछ देर के बाद कौलिक भी उठ कर बैठ गया नशा एवं क्रोध के कुछ कम हो जाने पर उसने कहा - "अरे कुल्टा, यदि तुम आज से फिर कभी बाहर निकलने का नाम न लो और पर पुरुष से मिलना छोड़ दो तो मैँ तुम्हे छोड़ सकता हूँ | "
नापिती नाइन ने अपनी आवाज पहचाने जाने के डर से कुछ नहीं कहा | वह बार-बार अपनी बातोँ को दोहराता रहा | पर जब नापिती कुछ नहीँ बोली तो उसकी खामोशी से अत्यंत क्रुद्ध होकर कौलिक ने किसी तेज शस्त्र से उसकी नाक को काट दिया और कहा –“जाओ, इसी तरह पड़ी रहो मैँ फिर तुंहेँ परेशान करने की कोशिश नहीँ करुंगा|”
यह कहकर वह सो गया |
धन-नाश और भूख से पीड़ित तथा जागते हुए देवशर्मा ने यह सब तिरिया-चरित्र देखा | कुछ समय पश्चात कौलिक की स्त्री अपने प्रेमी देव-दत्त से मिलकर वापस आयी | उसने नाइन से कहा –“ओ ओ, तू मजे में तो है ? मेरे जाने के बाद यह पापी जागा तो नहीं था ? “|
नाइन ने जवाब दिया –“सिवाय नाक के बाकी सब शरीर की कुशल है । जल्दी से मेरे बंधन खोल जिससे उसके -देखने के पहले ही मैं अपने घर पहुँच जाऊँ ।"
कौलिक की स्त्री ने नकटी नाइन के बंधन खोल कर स्वयं को खम्बे से बाँध लिया | यह सब होने के बाद कौलिक ने पुन: उठकर कहा, "छिनाल, अब भी क्यों नहीं बोलती ! क्या मैं फिर इससे भी कठोर कान काटने की सजा तुझे दूं ? "
गुस्से और झिडकी के साथ उसकी स्त्री ने जवाब दिया, "अरे महामूर्ख, तुझे धिक्कार है । मुझ जैसी महासती के अंग काटने वाला और उसे ताने मारने वाला कौन समर्थ है ? इसलिए हे सब लोकपालों सुनो -
“सूर्य, चंन्द्र, अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी, जल, हृदय, यम, रात्रि, दिवस, दोनों संध्याएं (सवेरा और संध्या) तथा धर्म, ये सब मनुष्य का आचरण जानते हैं | इसलिए अगर मेरा सतीत्व है, और मन से भी मैंने दूसरे आदमी की इच्छा नहीं की है तो-देवगण पुन: मेरी नाक को पहले की तरह सुन्दर और पूरा बना दें | पर यदि मेरे चित्त में पर-पुरुष का झूठा खयाल भी है तो वे मुझे जला डालें ।"
यह कहकर वह फिर उससे बोली,- “ओ पापी,देख मेरे सतीत्व के प्रभाव से मेरी नाक पहले-जैसी ही होगई है ।"
इस पर बुनकर ने अंगीठी की रोशनी में पास जाकर उसकी ज्यों-की-त्यों नाक और जमीन पर गहरा खून बहते देखा | बड़े अचंभे में पड़कर उसने अपनी स्त्री के बंधन खोलकर उसे खाट पर लिटाकर खुशामद की बातों से उसकी मिन्नत करने लगा |
देवशर्मा भी विस्मित मन से यह सब हाल देखता रहा, और मन ही मन बुनकर की स्त्री कि चतुराई पर आश्चर्य प्रकट करते हुए उसने नकटी दूतिका का पीछा करने का निश्चय किया |
उधर नकटी दूतिका (नाई की स्त्री) ने भी अपने घर जाकर सोचा, -"अब क्या करना चाहिए, और इस बड़े भेद को किस तरह ढकना चाहिए ।"
वह इसी तरह सोच रहीं थी कि उसका पति, जो काम के लिए रात में राजमहल गया था, सवेरे ही अपने घर लौटकर नागरिकों की हजामत बनाने के लिए जाने की उतावली से देहली पर ही खड़ा होकर उससे कहने लगा,- “भद्रे ! जल्दी से छुरे की पेटी ला, जिससे मैं हजामत बनाने जाऊँ |”
उधर नकटी नाइन ने, जो अपना काम बनाने की ताक में घर में हीं बैठी थी, छुरे की पेटी में से एक छुरा निकालकर नाई की तरफ़ फेका | नाई ने भी उत्सुकता से केवल एक छुरा देख कर गुस्से से उसकी ओर वह छुरा वापस फेंका और चीखा – “यह क्या है ? पूरी पेटी ले के आ |”
इसके बाद वह दुष्टा हाथ उठाए हुए रोती चिल्लाती घर से बाहर निकल आई -"अरे देखो, इस पापी ने मुझ जैसी सतवंती की नाक काट डाली । इससे मेरी रक्षा करो , रक्षा करो ।"
उसकी चीख सुनकर राजा के सैनिक वहाँ आ गए | उन्होंने उस नाई को डंडों से पीटा और मजबूती से बाँधकर उसकी नकटी स्त्री के साथ धर्माधिकरण-स्थान (अदालत) में ले- जाकर न्यायधीशों से कहा- "हे सभासद, सुनिए, इस नाई ने बिना-कसूर अपनी स्त्री की नाक काट दी है | इस बारे में जो ठीक हो वह कीजिए |"
ऐसा कहने पर न्यायधीशों ने कहा - "अरे नाई, किसलिए तूने अपनी स्त्री का अंग-भंग कर दिया ? क्या वह पर-पुरुष को चाहती थी अथवा वह किसी को जानती थी अथवा चोरी की थी, उसका अपराध कहो ।"
नाई मार खाने के भय से बोल न सका । उसे चुप रहते देखकर न्यायाघीशों ने पुन: कहा- "इन सैनिकों की बात ठीक लगती है, यह पापी हैं जिसने इस बेचारी स्त्री का अपमान किया है । कहा भी हैं -…
“पाप-कर्म के बाद मनुष्य अपने कर्म से ही डर जाता है, उसके मुख का रंग और आवाज बदल जाती है, द्रष्टि शंकित हो जाती है और तैज उड़ जाता है|”
इस नाई में बदमाशी के लक्षण दिखते हैं | स्त्री का अंग-भंग करने से यह मृत्यु-दंड का भागी है । इसलिए इसे सूली पर चढा दो |
इधर देव शर्मा जो दूर से ही यह सब घटना क्रम देख रहा था तुरंत न्यायधीशों के सम्मुख उपस्थित हो कर बोला - "' न्यायधीशों ! यह गरीब नाई अन्याय से मारा जा रहा है । यह तो सदाचारी है | तब न्यायधीशों ने कहा, "भगवन यह किस तरह ? "
इसकें वाद देवशर्मा ने विस्तार पूर्वक सारी कहानी सुनाई | उसे सुनकर ताज्जुब में आकर उन्होंने नाई को छोड़ दिया और नकटी नाइन की और देखते हुए बोले- ‘इसकी नाक कटना उसके कर्म का ही फल है | इसलिए राज-दंडस्वरूप इस स्त्री के कान काट लेंने चाहिएं ।"
ऐसा हो जाने पर धन-नाश" के दुख से रहित होकर देवशर्मा भी पुन: अपने मठ चले आए |
करटक ने कहा, "ऐसी हालत में हम दोनों को क्या करना चाहिए ?"
दमनक ने कहा , "तुम चिंता ना करो तात मैं अपनी बुद्धि का प्रयोग करके कोई ना कोई चाल चलूंगा और उन दोनों की मित्रता को तोड डालूंगा ।"
करटक ने कहा, "भद्र ! किंतु यदि पिंगलक को तेरी चाल का पता लग गया तो संजीववक के स्थान पर तेरी मौत होगी ।"
उसने कहा, "तात ! ऐसा मत कह; परिस्थितियां प्रतिकूल होने पर भी हमें कोशिश नहीं छोड़नी चाहिए | मैं अपनी तीक्ष्ण बुद्धि का प्रयोग करके ऐसी छिपी चाल चलूंगा कि वे दोनों न जानने पाएं, उसी प्रकार जिस प्रकार वुनकर ने अपनी युक्ति का प्रयोग करके विप्णु का रूप धारण करके छल पूर्वक राजकन्या के साथ रमण किया ।”
करटठक ने कहा , 'सो कैसे ?” उसने कहा--
विष्णु का रूप धारण करने वाले वुनकर और राज-कन्या की कथा
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